गुलजार गली
भाग-1
"तुम्हे जाना तो खुद पे हमें तरस आ गया,
तमाम उम्र यूँ ही हम खुद को कोसते रहें"
"गुलज़ार गली" यही नाम था उस गली का। मैने कभी देखा नहीं था बस सुना था, हर किसी के ज़ुबान पे बस उसी गली का चर्चा रहता "गुलज़ार गली"।
तकरीबन डेढ़ महीना हुआ होगा मुझे यहाँ आए हुए, इस डेढ़ महीने में ऐसा कोई भी दिन नहीं था, जिस दिन मैने उस गली का ज़िक्र न सुना हो। किसी न किसी के ज़ुबान से पूरे दिन में 2 या 3 बार तो सुन ही लेता था उस गली का नाम "गुलज़ार गली"।
आख़िर क्या है उस गली में? आख़िर क्यों इतनी मशहूर है? वो गली जो हर कोई उस गली का चर्चा करता रहता है। मैने कभी किसी से पूछा नहीं, सोचा खुद ही किसी दिन जाकर देख लेंगे। आख़िर क्या है उस गली मे और क्यों इतनी मसहूर है वो गली?
दोस्तों ये कहानी उस गली की है जो हर रोज, शाम होते ही किसी नई नवेली दुल्हन की तरह सज जाया करती थी। वो गली जो किसी जन्नत से कम न थी, वो गली जो निगाह को किसी एक जगह ठहरने न देती थी, वो गली जो पलकों को झपकने न देती थी, वो गली जिसे देख दिल धड़कने लगता था, वो गली जिसने लाखों अफ़साने बनाए हुए थें, वो गली जिसने कई दर्द छुपाए हुए थे। वो गली जिसके हर धड़कन से बस यही सदा आती थी।
"कई आह बेचते हैं, हम हो लाचार बेचते हैं,
वो ज़िस्म खरीदते हैं, मगर हम प्यार बेचते हैं"
भाग-1
माथे पर शिकन और दिल में बेचैनी लिए ठाकुर साहब अपने घर के बरामदे में बैठे हुए थें। न जाने अब तक वो कितनी सिगरेट पी चुके थें। सिगरेट जलातें, दो सुट्टा मारतें, और फिर बुझा कर फेंक देतें, फिर थोड़ी देर बाद दूसरी सिगरेट जलातें, दो सुट्टा मारतें उसे भी बुझा कर फेंक देतें ।
घंटों से ऐसा ही चल रहा था।
कुछ देर बैठते कुर्सी पर फिर खड़े होकर इधर-उधर बरामदे में चहल कदमी करने लगतें।
फिर घर के दरवाजे की तरफ देखतें, और फिर बेचैन होकर घर के बाहर देखतें, और फिर बरामदे में चहल कदमी करने लगतें।
तभी उनका बड़ा लड़का घर से दौड़ता हुआ बरामदे की तरफ आया, और आते ही पूछा.......बाबूजी बाबूजी मां को क्या हुआ है, मां क्यों कमरे में बंद है ।
अपने बेटे के मुंह से ऐसा सुनकर, ठाकुर साहब ने उसे गोद में उठा लिया और बड़े प्यार से बोलें.....बेटा तुम्हारी माँ को कुछ नहीं हुआ है वो बस थोड़े ही देर में कमरे से बाहर आ जाएंगी ।
ठाकुर साहब अभीं अपने बेटे सुधांसु को तसल्ली दे ही रहे थें कि, तभी घर के अंदर से एक बुढी औरत बरामदे में आई, और आते ही बोली......बधाई हो ठाकुर साहब आपके घर लक्ष्मी आई हैं। फिर क्या था इतना सुनना था की ठाकुर साहब खुशी से उछल पड़ें, वो इतना खुश हुएं कि अपने गले मे पड़ी ढाई तोले की सोने की चैन निकाला और उस बूढ़ी औरत को दे डाला ।
फिर अपने बेटे को लिए भागते हुए उस कमरे मे पहुंचे जिस कमरे में उनकी धर्मपत्नी ने उनकी बेटी को जन्म दिया हुआ था ।
कमरे में पहुँचते ही ठाकुर साहब ने अपनी प्यारी सी बच्ची को गोद में उठा लिया । वो कभी उसके माथे को चुमतें तो फिर कभी उसे अपनी बाहों मे भर लेतें, बहुत ही खुश थें ठाकुर साहब, इतना की उनके आँखों मे आँसू आ गयें।
उनके आँसुओं को देख कर उनकी पत्नी ने कहा....ये क्या आप तो रो रहे हैं जी......
फिर ठाकुर साहब ने अपनी पत्नी प्रेमा को देखते हुए कहा .........हाँ प्रेमा (प्रेमा नाम था ठकुराइन का) मैं आज बहुत खुश हूँ ।
फिर रो क्यों रहे हैं जी आप उनकी पत्नि ने उनकी बात बीच मे ही काटते हुए कहा।
अरे पागल ये तो खुशी के आँसू हैं....हमारे घर लक्ष्मी आई हैं प्रेमा लक्ष्मी ।
आज मैं बहुत खुश हूँ प्रेमा बहुत खुश हूँ, आज तो मैं पूरे गाँव मे नाचूंगा और सबको बताऊंगा कि मेरे घर लक्ष्मी आई हैं।
और फिर ठाकुर साहब अपनी बेटी को ठकुराइन की गोद मे रखा और ठकुराइन का माता चुम कर बोला.....प्रेमा आज तुमने मुझे दुनिया की सबसे बड़ी दौलत दी है । आज मेरा इस संसार मे जन्म लेना सफल हो गया प्रेमा वो भी तुम्हारी बजह से, तुम्हारा लाख लाख धन्यवाद प्रेमा ।
तुम जानती नहीं हो प्रेमा, इस दुनिया मे अगर कोई सबसे बड़ा दान और दानी है तो वो दान है कन्या दान और वो दानी है एक पिता जो अपनी जान से प्यारी बेटी का कन्या दान करता है ।
इतना कह कर ठाकुर साहब कमरे से बाहर निकलें और द्वार पर आते ही अपने जेब से नोटों की गड्डी निकाली और भांटो के उपर लूटाने लगें । (भाँट एक ऐसी जाति जो शादी ब्याह या किसी भी शुभ मौके पर लोगो को बधाई देने आते हैं) और फिर उनको बोला कि.......अरे बैठे क्यों हो बजाओ भाई बजाओ, आज मेरे घर लक्ष्मी आई हैं लक्ष्मी।
बस इतना सुनना था कि वो लोग ढोल बजाने लगें, फिर क्या था ठाकुर साहब उनके बीच जाकर नाचने लगें । उनका इस तरह खुशी से नाचना देख वो भाँट लोग और भी खुशी से ज़ोर ज़ोर से बजाने लगें और गाने लगें ।
फिर ठाकुर साहब नाचते हुए गाँव की तरफ जाने लगें और उनके पीछे पीछे भाँट लोग भी बजाते और गाते हुए चलने लगें ।
रास्ते में जो भी मिलता ठाकुर साहब उस को गले लगा लेतें और नाचते हुए बोलतें....भाई मेरे घर लक्ष्मी आई है लक्ष्मी ।
पूरे गाँव मे जोर जोर से चिलातें और सबको बतातें....सुनो भाइयों गाँव वालों मेरे घर लक्ष्मी आई है लक्ष्मी । अरे मेरे घर बेटी जन्मी है बेटी और फिर नाचने लगतें ।
जिन लोगों को वो रस्ते में गले लगा कर बतातें कि उनके घर बेटी हुई है, तो वो लोग उस वक़्त तो खुश हो जातें, लेकिन पीछे कहतें....ये ठाकुर पागल हो गया है क्या, नाच तो ऐसे रहा है जैसे इसके घर लड़का पैदा हुआ है ।
लग रहा है बेटी पैदा होने के सदमे से ठाकुर पागल हो गया है । हर कोई अपनी अपनी सोच के मुताबिक ठाकुर साहब पर तंज कसता ।
ठीक ही तो कह रहे थें वो लोग, जिस दौर मे लोग बेटी पैदा होना गुनाह मानते थें,अरे उसे पैदा तो दूर उसे माँ की कोख मे ही मरवा देते थें, उस दौर मे ठाकुर साहब बेटी होने की जश्न मना रहे थें।
तो आखिर भला लोग उन्हे पागल क्यों नहीं सझतें ?
क्रमशः..............
©इंदर भोले नाथ
दोस्तों मेरी उपन्यास का पहला भाग आपको कैसा लगा जरूर बताइयेगा, आपकी राय मेरे लिये बहुत मायने रखती हैं। और मैं आप से दावा करता हूँ की मेरी उपन्यास "गुलजार गली" आपको बहुत पसंद आयेगी।
धन्यवाद